एक ऐसा भी दौर गुज़रा हम पे
समंदर में किश्तियाँ डुबो आये
पास क्या आया जाना ही नहीं
बेखौफ तन्हाइयों से मिल आये
रस्में दुनियाँ से क्यों करें शिकवा
कैसे नादान थे जो ना समझ पाये
मेरे माज़ी को मेरी ही तलाश रही
हम ना जाने कहीं और ढूंढ आये
फिर किसी गुमशुदा की तलाश करे
क्या पता इक रोज़ हमें मिल जाये
मासूम सी बेलौस हसरतें हैं ये ''अरू ''
ज़िंदगी इन से ही फिर शुरू की जाये
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