बहुत याद आई फिर बचपन की अपने,
दूर बहुत दूर जब सपने सजा करते थे ।
पास आ जाता था मन का आकाश भी,
सीमा से परे जाती मन की कल्पना थी।
मुट्ठियों में जब बांध जाता आकाश था
हिरन की कुलाचे भरते भागते मन थे।
फिर याद आया वो बीता जमाना मुझे
बड़ा दीवाना ज़माना ये लगा था मुझे।
आराधना
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