सभ्यता के नाम
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मेरे आँगन में भोर कि लालिमा छाई
बिटिया तू जिस दिन घर में मेरे आई
मलीन मुख पर क्रांति सी ले कर आई
मुझे लगा नन्ही परी मेरे घर पर आई
अश्रुओं कि धार किसी भी ने ना बहाई
तू पूरे घर को थी मन ही मन में सुहाई
आज में दुनियाँ के रुख को देख घबराई
तीरे किसने सभ्यता के नाम के चलाये
छींटा कसी देख़ बात ना समझ में आई
क्यों परिधान कि बात यू हर घड़ी उठाई
देखा नहीं महिला विश्व में सार्थक हो गई
कहीं कल्पना ,कही एमली ,तो सैली राइड
किरण अवतरित हो धूमिल नहीं हो पाई
बेटी के अंतस कि बात क्या समझ पाये
जब किसी क्रांति में एक स्त्री दल होता है
समाज भी जा के वही सगठित होता है
जब कोई बेटे बेटी में अंतर नहीं पाता है
स्त्री पुरुष के नाम कि दुहाई नहीं लगता है
नव किसलय विचारों का हनन नहीं होता
वही समाज सभ्यता के गीत ही गा पाता है
आराधना राय
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