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बारात चली थी

बारात चली थी
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वो हाथों कि मेंहदी दिखाते है
हमारे दिल को क्यू खूँ में नहलाते है
उसकी आंखों में सिर्फ लाली थी
वो किसी और कि हमेशा जो होने वाली थी
सब ने लाल जोड़ें में सजे देखा
उस के दिल के दर्द को किसी ने ना देखा था
तमाम खुशियों कि बारात सजी थी
बड़ी ख़ामोशी से इश्क़ कि अर्थी सजी थी
बडी धूम से डोली उठी थी
किसे पता "अरु " लाचारी लेकर चली थी
कोई युग हो उस में गरीब की बेटी जली
अग्नि-परीक्षा बारम्बार सिया की हुई थी
सोते हुए भारत को कैसे कोई जगाए
रण से लौट कर जो सिपाही ना कभी आए
हजारों सदियों को अपने में लपेटे
नारी क्यों तेरा आँचल हमेशा ही कोई खी
दहेज़ की आंधियाँ घर हर किसी का लुटे
इन्हीं नाकामियोंसे मेरा देश जूझे
आराधना राय "अरु"

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गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"
आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना